15.3 C
Kishtwār
Tuesday, June 6, 2023

Complete Machail Yatra History in Hindi by Sh. D.R.Parihar

आइये आपको लेकर चलते हैं अतीत में जहाँ हम आपको सुनाएंगे Machail Yatra History से जुडी सम्पूर्ण कथा। इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि हजारों वर्ष पूर्व हिमाचल प्रदेश क्षेत्रांतर्गत मिंधल गांव में एक साधारण बुढ़िया रहती थी कुछ लोग इसे घुमरो की संज्ञा देते हैं जबकि कुछ लोग इसे धूंघती नाम से पुकारते थे।

घुमरो बुढ़िया अथवा माता का पिंडी स्वरुप का प्रकट होना

महामाई सर्वशक्ति चण्डिका भवानी बुढ़िया की सादगी एवं श्रद्धा भाव देख उस पर दयाल हुई तथा उस के कश्ट मिटाने के आशय से उस के घर चूल्हे के मध्य शिला (पिण्डी) रूप में प्रकट हुई। पर घुमरो अर्थात धूंधती बुदिया का दुर्भागय कि वे महामाई की माया को समझ न पाई अर्थात माँ का वरदान उस की अपनी ही दुर्बुद्धि कारण अभिशाप बन गया बाद में जन घुमरो को समझ आई तो काफी देर हो गई थी पर फिर भी करूणा मई ने उस पर करूणा बरसाई प्रथम उसके भीतर अपनी सत्ता एवं शक्ति का एहसास जागृत किया अपनी क्रीड़ाओं द्वारा।

Machail-yatra-history-in-hindi
श्री दौलत परिहार द्वारा लिखित मचेल यात्रा इतिहास

हुआ यूँ कि जब भवानी ने बुढ़िया के चूल्हे एवं घर में प्रवेश कर लिया तथा घुमरों को चूल्हे के मध्य शिला के होते भोजन पकाने में दिक्कत आने लगी तो उस ने शिला को तोड़ डाला। जब चूल्हे के मध्य शिला के प्रकट होने और फिर टूटने का क्रम जारी रहा तो माँ भवानी ने एक दिन बुढ़िया को स्वपन में कहा कि यह स्थान अर्थात अपना घर मुझे प्रदान कर दे पर घूमती बुढ़िया की बुद्धि ने काम नहीं किया और वे शिला को मिट्टी डाल कर दबाने का यत्न करती तो शिला फिर उमर आती।

इस घटना का वृत्तांत जब बुढ़िया ने अपने बेटों एवं पुत्र वधुओं को सुनाया तो उन्होंने बुढ़िया की बातों को घंभीरता से नही लिया अर्थात अनसुनी कर दी। जब गाँव की महिलाओं को बताया तो उन्होंने कहा कि हमें चरखा कातना है तेरी बातें सुनने के लिए नहीं हैं। जब गाँव के किसानों को सुनाने का साहस किया तो वे बोले हमें खेतों में हल जोतना है अर्थात घुमरों की बात पर न तो किसी को विश्वास होता था और न ही उस की बात कोई सुनना चाहता था।

माता चंडी का श्राप

छः दिन ऐसे ही बीत जाने पश्चात जब घुमरों न मानी और शिला को टुकड़े करने की मूर्खता करती रही तब माता का अभिशाप प्रारम्भ हुआ अर्थात चण्डी ने क्रोधित हो काली रूप धारण कर बुढ़िया के पुत्रों का संहार आरम्भ कर दिया। अंततः एक के बाद एक जब घुमरों के छ: पुत्र मर गए तो वे शिला के निकट जाकर रोने लगी और क्षमा याचना के साथ कहने लगी कि हे माँ मुझ पर दया करो। मेरा सर्वनाश हो गया।

बुढिया के पश्चाताप पर तथा यह स्वीकार करने पर कि माँ मुझ से गलती हो गई मैं मूर्ख आप की माया को समझ न सकी। अब जैसा कहो गी माँ मैं वैसा ही करूगी तो माँ की ममता जाग उठी । भवानी ने उसे स्वपन में कहा कि अपने रसोई घर को मेरा मन्दिर बना दो। बुढ़िया ने प्रातः रसोई घर को गोबर और मिटी से पोत कर वहाँ मैया की तस्वीर रख तन-मन से माँ की सेवा में रत हो गई पर ज्यों ही उसे अपने पुत्रों का ध्यान आता वे रोती-बिलखती बेसुद्ध हो जाती। घुमरो की बेसुद्ध दशा को निरख महारानी चण्डिका भवानी को दया आई और वे कन्या रूप बना उस के समीप जाकर उसे सांतवना देती और सहायता करती।

घुमरो कन्या को अपने पास पाकर अति प्रसन्न रहती तथा उसे प्रतिदिन आने को कहती उसे क्या मालूम कि माँ भवानी स्वयं उस के सम्पर्क में हैं। एक दिन की बात है कि कन्या से बातें करते-करते बुढ़िया को स्मर्ण हुआ कि आटा भी पीसना है और पानी भी भरना है इस पर कन्या बोल पड़ी आटा मैं पीस देती हूँ आप पानी भरना क्योंकि आज में भी भोजन यहाँ आप के संग करूंगी। जब तक घुमरों पानी| लेकर वापिस पहुँची आटे के ढेर को देख असमंजस में पड़ गई कि इतनी शीग्रता से कन्या ने सारे का सारा अनाज हथ चक्की पर कैसे पीस डाला। इतना कुछ चमत्कार देखने पर भी घुमरो की बुद्धि महामाया को नहीं पहचान पाई। इतने में बुढ़िया ने कहा कि मैं दही और माखन बिलोती हूँ। इस पर कन्या झट से बोली कि माखन मैं निकालती हूँ आप रोटी पकाओ । घुमरों अभी आटा ही गूंध रही थी कि कन्या ने माखन बिलोकर बुढ़िया के सामने रख दिया अब घुमरो को सूझा कि यह कन्या कोई साधारण कन्या नहीं है अवश्य कोई दिव्य ज्योति मेरे घर पधारी है। कितनी भागशाली थी घुमरो जिसे सर्वशक्ति जगजननी भवानी का सानिध्य प्राप्त हुआ था। घुमरो तुरंत माता के चरणों में नतमस्तक हो अपनी भूल के लिए क्षमायाचना करने लगी। तभी माँ ने उसे अपने दिव्य दर्शनों द्वारा उस के मन को शान्ति प्रदान की तथा उसे अपने गले लगाया और कहा कि वर मांगो। घुमरो ने याचना की कि हे माँ ऐसा वर दो कि जनता को विश्वास हो जाए कि जग कल्याणी यहाँ मिंधल मट्टास घुमरो के घर प्रकट हुई है।

पढ़ने योग्य आर्टिकल

माँ ने कहा कि घुमरो इस गाँव में आज के बाद मात्र एक ही बैल द्वारा हल जुतेगा जो स्थानीय एवं अन्य लोगों के लिए अजूबा होगा। इस के साथ ही आधी चक्की आटा पीसा करेगी। ठीक तब से यह प्रथा निरंतर जारी है। आज भी हल में एक ही बैल जोता जाता है यदि दूसरा जोड़ा जाये तो वे मर जाता है ऐसी स्थानीय लोगो की मानता एवं धारणा है और ऐसा मात्र पांगी क्षेत्र में है अन्य जगहों पे नहीं। यह अभिशाप माता ने इसलिए दिया कि गाँव वाले घुमरो की बात पर विश्वास नहीं कर रहे थे और माँ की शक्ति से भी मुनकर थे कोई कहता था मुझे खेत में हल जोतना है तो कोई यह कह कर टाल देता था कि चर्खा कातना है।

माता रानी का घुमरो को आशीर्वाद

माँ के साक्षात दर्शन उपरांत घुमरो ने अपना सर्वस्व माँ के चरणों में अर्पण कर दिया भगवती ने कहा कि मैं तेरी निष्काम भक्ति पर प्रसन्न हूँ तथा वर देती हूँ कि मेरी पूजा के साथ-साथ मेरे भक्त तेरा भी नाम स्मर्ण करेंगे और तेरे बच्चों का दुःख भक्त भी मनाएंगे तथा देव पूजा दौरान सर्वप्रथम महात्मा राग का प्रयोग करेंगे यह प्रथा आज भी पांगी एवं उस से जुड़े पाडर क्षेत्र में माजूद है। इसका प्रमाण माता के चेलों द्वारा चौकी देते समय मिलता है अर्थात चौकी ( माता का प्रवेश) लेते वक्त चेला रोता है तत्पश्चात विस्तार की बात चेले के मुखार बिंद से निकलती है ।

इस प्रकार माँ भगवती के साथ-साथ श्री घूमरो देवी का नाम भी अमर हो गया। आज घुमरो का पुराना घर न केवल एक मन्दिर है अपितु तीर्थ तुल्य है जहाँ दूर-दूर से माता के भक्त माता एवं घुमरो के प्रति अपनी श्रन्धा के प्रदर्शन निमित पहुँचते हैं इस प्रकार मिंधल हिमाचल का नाम प्रसिद्ध हुआ और इसकी मान्यता दिन-प्रतिदिन लोकाप्रेय होती जा रही हैं।

मिंधल के ऐतिहासिक स्थल तथा भगवती का आद्य स्थान होने का प्रमाण स्वर्गीय श्री गुलशन कुमार द्वारा निर्मित एवं प्रसारित टी. वी. सीरियल ओम नमः शिवाये में भी उपरित है। जिस से इस स्थान संबंधी जानकारी एवं मान्यता सत्य सिद्ध होती है यहाँ मिंधल भट्टास से माँ भगवती चण्डिका, शिला रूप में ही जग विख्यात नीलम खान के निकट एक मनोरम तथा प्रकृतिक आंचल में बसे मचेल गाँव के मध्य प्रकट हुई। यह उस आद्यकाल की बात है जब इस स्थान तक पहुँचना नामुमकिन था। उस समय नीलम घाटी पाडर भी हिमाचल प्रदेश का ही भूभाग थी। यही कारण है कि पाडर क्षेत्र के निवासी भी ईश्वर भक्त, और सादगी पसंद मां के उपासक हैं और इन के रस्म व रिवाज हिमाचल से मेल खाते हैं।

माँ भवानी का पाडर आने का विस्तार

माँ भवानी ने तो अपनी ओर से एक रमणीक दुर्गम एवं दूरस्थ स्थान चुना था पर उसके सेवकों ने अपनी दूढ आस्था का प्रदर्शन कर दुर्गम पहाड़ी मार्गों पर से होते हुए मों को मचेल में खोज लिया और इस प्रकार भक्तों का यहाँ आना सदियों पूर्व आरम्भ हुआ। यह एक गुमनाम एवं उपेक्षित क्षेत्र रहा है परंतु माँ भवानी की कृपा एवं मचेल यात्रा कारण नीलम घाटी पाडर न केवल जम्मू-कश्मीर राज्य अपितु समस्त भारत में प्रसिद्ध हुआ। इस बात का प्रमाण है वे यात्री जो देश के कोने-कोने से चल कर मचेल पहुँच माँ के चरणों में नतमस्तक हो असीम आत्म संतुष्टी पाते हैं तथा अपनी झोली भरकर घर को लोटते हैं।

श्री चण्डिका भवानी के मचेल पाडर प्रकट होने संबंधी कुछ किमवदन्तियों नुसार कहा जाता है कि भूतकाल में पाडर का कोई सज्जन अपने किसी कार्य वश हिमाचल अर्थात पांगी क्षेत्र गया हुआ था और रात्रि विश्रामार्थ वे मिंधल मन्दिर प्रांगण में चला गया। वहाँ मन्दिर में माँ चण्डिका भवानी के दर्शन कर मुग्ध हो गया तथा उस के मन में विचार जागा कि माँ भवानी कभी हमारे गाँव में भी प्रकट होती तो कितनी अच्छी बात थी। यहाँ रोज आना तो असम्भव है।

Machail Mata Temple
१९७६ का मचेल माता का मंदिर

उस सज्जन परूष ने अपने मन ही मन माता से अर्दास की कि हे माँ मैं एक निर्धन व्यक्ति हूँ तथा मेरे क्षेत्र पाडर के निवासी भी आप के दर्शनार्थ मिंधल हिमाचल नहीं आ सकते क्योंकि हमारा जन्म स्थान यहाँ से बहुत दूर हैं। बस इसी सोच दौरान उसे निद्रा ने घेर लिया।

उसे क्या मालूम था कि भगवती माँ ने उस की अर्दास स्वीकार कर उसे स्वप्न में दर्शन प्रदान करने हैं माँ ने उससे कहा कि हे सज्जन परूष मैं तुम्हारी श्रद्धा-आस्था एवं परोपकार की भावना से प्रसन्न हुई और तुम्हारे साथ तुम्हारे गाँव चलना चाहती हूँ पर इस के लिए तुम्हें मेरी कोई निशानी यहाँ से अपने गांव ले जानी होगी माँ स्वंय अलोप हो गई।

प्रातः जब इस भले व्यक्ति की नींद खुली तो अपने रात्रि स्वप्न का बृंतात सर्व प्रथम वहां के पुजारी को सुनाया पुजारी माँ का सेवक होने के नाते तुरंत समझ गया कि माँ जनहित में पाडर प्रकट होकर वहां की जनता का सहारा बनना चाहती है तथा पूरे पवर्तीय प्रदेश में अपने चमत्कारों एवं लीलाओं के माध्यम से लोगों का कल्याण चाहती हैं। उसने पाडर के इस अतिथि को नहाने धोने अर्थात पवित्र होकर मन्दिर में प्रवेश करने का मश्विरा दिया। काफी समय उपरांत जब यह सज्जन शौच आदि से निवृत, नहा धोकर मन्दिर पहुंचा तो पुजारी ने इसे माँ भगवती का एक छोटा सा त्रिशूल हाथों में थमाते हुए कहा कि इस शस्त्र को कही जमीन पर नहीं लगने देना इसे बड़ी श्रद्धा से गाँव में एक छोटा सा मन्दिर बनवा कर वहाँ आसीन कर देना तथा प्रातः- सायं इसकी पूजा करते रहना। माँ भवानी तुम्हारे सारे कष्ट दूरकर देगी।

इस प्रकार उस भले व्यक्ति द्वारा माँ का त्रिशूल मचेल पाडर में प्रस्थापित किया गया। काफी प्रयत्नों के बावजूद भी उस सज्जन के नाम का पता नहीं चल पाया है क्योंकि यह घटना बहुत ही पुरानी है। पर कुछ भी हो माता के सभी सेवक उस व्यक्ति के कृतज्ञय हैं जिसकी भक्ति, लगन एवं श्रद्धा कारण माँ दुर्गा अपने त्रिशूल के माध्यम से पाडर पहुंची तथा भक्तों की मनोकामना पूर्ण हुई। हम उस व्यक्ति के आभारी है। नीलम घाटी पाडर नीलम खान कारण प्रसिद्ध तो पहले से ही थी परंतु मचेल गांव का नाम यदि मश्हर है तो वरदायनी चाप्डको महारानी के चमत्कारों कारण। यहाँ प्राचीन काल से ही क्षेत्र के लाग विशेष कर नवदम्पति पुत्र बर की प्राप्ति के लिए आया करते थे और मिन्नते मांग माता से वर प्राप्त करते थे। जिस किसी की भी पुत्रफल की इच्छा पूर्ण होती थी वे अपने पुत्र का मुण्डन संस्कार मचेल माता के मन्दिर प्रांगण में पहुंच कर मां को साक्षी मान बच्चे के बाल काटते हैं । ऐसी प्रथा आज भी जारी है। इस रस्म को स्थानीय भाषा में गाभा’ कहते हैं।

सर्वशक्ति माँ चण्डिके अपने आद्य स्थान मिंधल भट्टास से मचेल पधारी हैं तथा बहुत सारे भक्त जन मिंधल माता के नाम से भी जानते एवं पूजा- अर्चना करते हैं। पाडर एवं देश भर के अन्य स्थानों के यात्री मचेल मन्दिर तथा मिंधल भट्टास में आज भी घुमरो बुढिया की चादर ओढ़ने की सुईयाँ माजूद पाते हैं जिन के प्रयोग द्वारा घुमरों अपनी शरीर को ढकने की चादर ओढ़ा करती थी। इस के अलावा उस समय की लकड़ी निर्मित दो तलवारें जिन्हें स्थानीय भाषा में खण्डे कहते हैं माजूद हैं।

मचेल मंदिर के किवाड़ खुलने की कथा

इसके अतिरिक्त यहाँ बकरे की बली देने की भी प्रथा थी जो अब माता के आदेश एवं यात्रा संस्थापक ठाकुर कुलबीर सिंह जमवाल के प्रयत्नों वश समाप्त हो गई। हाँ एक प्रधा माता के वार्षिक मेले की आज भी रवां-दवा है। अंतर मात्र इतना है कि पहले इस मेले को स्थानीय नाघुई उत्सव के अवसर पर आयोजित किया जाता था जब कि वर्तमान समय में इस वार्षिक मेले ने ‘मचेल यात्रा’ का रूप धारण कर लिया है पहले तो स्थानीय लोग नाघुई मेले के अवसर अर्थात प्रथम भादू के शुभ दिन पर इस मेले का आयोजन करते थे और इसी दिन मन्दिर किवाड़ भी माता के दर्शनार्थ खोल दिए जाते थे वर्ष भर बंद रहने पश्चात क्यों कि यहाँ भारी हिमपात हुआ करता था तथा आना-जाना कठिन हो जाता था।

एक धारणा जो आज भी मौजूद है कि स्थानीय लोग जिन के माल मवेशी ग्रीष्म ऋतु में पहाड़ों परे चले जाते हैं एक महीना सुच्चा रखने पश्चात नाघुई मेले के दिन दूध-दही सर्व प्रथम माता की सेवा मेट कर फिर गाँव में बांटते हैं और इस प्रकार सुच्चे की रस्म समाप्त होती है। उनकी आस्था है कि सुच्चा रखने एवें माता को भेंट करने पर उनके घरों की बरकत बढ़ती है।

मिंघलियाह तथा शोरजायछ मेले

मिंधल पांगी में लोगों की यह धारणा आज भी जयों की त्यों बनी हुई है कि माता के अभिशाप कारण लोग ज्यादा संतान अर्थात सात पुत्र-पुत्रियाँ अपने घर में पैदा नहीं होने देते क्यों कि इस आंकड़े के पुत्र/ पुत्रियाँ जीवित नहीं रहता । लोक धारणानुसार माँ के शाप वंश पाशाण बन गए थे। पर ऐसी धारणा मात्र मिंधल गाँव में चरितार्थ है अन्य क्षेत्रों में नहीं। मिंधल माता के मन्दिर प्रांगण में वर्ष भर दो मेलों का आयोजन किया जाता है। एक मेला जो अगस्त माह दौरान आयोजित किया जाता है इसे मिंघलियाह तथा अक्तूबर-नवंबर के दौरान आयोजित मेले को शोरजायछ कहते हैं।

मिघलियाह मेले की विशेषता में माता के चेले द्वारा दूर जंगल से एक गड़वी भर पानी एवं चीड़ वृक्ष की हरी चोटी लाना शामिल है तथा मेले में रन्गोई एवं हाकम के दो रथ मुख्य आकर्षण हैं। जबकि शोरजायछ मेले दौरान, मैदान के मध्य एक बड़ा सा दीप जलाया जाता है। इस दीप में स्थान-स्थान से पधारे श्रद्धालू क्विटलों देसी घी डालते हैं ताकि अखण्ड जोत सारी रात प्रज्वलित रहे । इसे आकाश दीप भी कहते हैं। परंतु मचेल पाडर में माता का मेला साल में एक बार आयोजित होता है इसे मचेल यात्रा की संज्ञा प्रदान है। इस दिन स्थानीय लोग अपने रिवायती लिबास में ही मेले में भाग लेते हैं और खुशियों वितरित करते हैं और मचेलनी को अपने श्रद्धा सुमन यात्रियों के संग हल्वा-पूड़ी आदि का प्रसाद चढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं। प्रसाद सभी भक्तों को ग्रहण करवाते हैं तब जाकर उन्हें संतुष्टी प्राप्त होती है। इत्तेफाक की बात है कि माँ के प्रिय दोनों स्थलों के नामों का पूर्व शब्द ‘म’ ही है जैसे मिंधल और मचेल। बस माँ ही माँ ।

मचेल यात्रा का आरम्भ

लोकप्रिय मचेल यात्रा का शुभारम्भ वर्ष 1980 से प्रारम्भ हुआ जब मचेल यात्रा के संस्थापक एवं माता के एक पुलिस कर्मचारी ठाकुर कुलबीर सिंह जम्बाल ने कुछ सौ व्यक्तियों पर आधारित यात्रा को सुनियोजित ढंग से अपने पैतृक जन्म स्थल चिनोत्त भद्रवाह से मचेल लाया तब से निरंतर यात्रा प्रति वर्ष ढती ही जा रही है। गत 27 वर्षों से मचेल यात्रियों की संख्या में पचीस गुना बढ़ोत्तरी हुई है अर्थात 25,000 से बढ़कर 2004 में यात्रियों की संख्या बढ़कर 40,000 तक पहुँच गई थी जो सन् 2007 में 70 हजार आंकडे को पार कर गई।

वर्ष 1980 से पूर्व मात्र स्थानीय श्रद्धालू माता के दर्शनार्थ एवं परदायनी के वरदान स्वरूप अपने पुत्रों के मुण्डन संस्कार के लिए मचेल माता की शरण जाया करते थे जबकि आज देश भर से श्रद्धालु मिचेल यात्रा के अवसर पर अपनी मानसिक शांति प्राप्ति हेतु नीलम घाटी मचेल पाडर पहुँचते हैं तथा माता के दर्शन कर अपने को धन्य मानते हैं।

मचेल ही वे पावन स्थान है यहां शिव तथा शक्ति का सुन्द समागम देखने को उपलब्ध है। जहाँ एक ओर मचेल गाँव के ऊपरी भाग पर महाराणी चण्डिका जी शोभायमान हैं वही दूसरी ओर चंडिका मन्दिर के सन्मुख वाले पर्वत पर श्री शिव भोले बाबा अपने लिंग एवं जटा-जूट दशनों द्वारा अपने यात्रियों को निहाल करते हैं । ऐसा गौरव मात्र मचेल को ही प्राप्त है जहाँ शिव और शक्ति के एवं साथ दर्शन एवं आर्शीवाद यात्रियों को प्राप्त होते हैं जभी तो बहु दूर-दूर से यात्री मचेल यात्रा गमन हेतु लालायत होते हैं तो अधीरता से यात्रा तिथि की प्रतीक्षा करते हैं।

ठाकुर कुलबीर सिंह जी और मचेल माता की कथा

जहाँ तक मचेल यात्रा की लोकप्रियता एवं चण्डी माता मचे का संबंध है तो इसकी लोकप्रियता एवं प्रसिद्धी का अपना एक इतिहा है। सन् 1976 की घटना है कि एक पुलिस अधिकारी (ए.एस.आई )ठाकुर कुलबीर सिंह जम्वाल सपुत्र स्वर्गीय ठाकुर राजदेव सिंह जमवाल चिनोत भद्रवाह निवासी स्थानांतरित होकर मचेल पहुँचे मचेल गांव में पुलिस चौकी चण्डी माता के मन्दिर निकट का वाकया है अब पुलिस वालों की दृष्टी हर समय मन्दिर पर पड़ती रहती है।

काफी पुराना एवं मान्यता युक्त होने कारण इस मन्दिर में माता की अपार सम्पति मौजूद है जिस में सोना, चान्दी एवं अन्य प्रकार के मूल्यवान वस्तुएं शामिल हैं, की रखवाली भी पुलिस के जिम्मे होती थी।

एक बार की घटना है कि पूर्णमाशी रात थी और समय था पिछला पहर अकस्मात मन्दिर प्रांगण प्रकाश्मान हो उठा साथ में पायल तथा मन्दिर के किवाड़ खुलने की आवाज पुलिस वालों को सुना पड़ी तो उन्होंने समझा समभवत, कोई चोर मन्दिर में घुसने का प्रयत्न कर रहा है। फलस्वरूप पुलिस कर्मियों ने गोली का प्रयोग किया रात्रि की बात थी गोली की आवाज सुनकर गांव वाले जाग पड़े तथा पुलिस चौकी की ओर दौड़े। ज्ञात हुआ कि पुलिस वालों ने गोल चलाई है तो इस पर वे सख्त नाराज हुए। जब ठाकुर कुलबीर सिंह (ए.एस.आई ) को नींद से जगाया तो उन्होंने मन्दिर के किवाड़ बंद पाए । स्थानीय लोगों ने बताया कि आज पूर्णिमा है माता का फेरा होता है तुम लोगों ने गोली का प्रयोग कर अपराध किया है । माता कूपित हो कर गांव वालों को भी और पुलिस वालों को भी सजह देगी। लोगों के कथनुसार दो पुलिस कर्मी जिन्हों ने गोली प्रयोग में लाई थी दूसरे दिन बीमार पड़ गए। इस पर ए.एस.आई. ने कहा कि यदि माता वाकय यहाँ है तो इन पुलिस कर्मियों को स्वस्थ कर दे क्योंकि इन्होंने चोर के डर से गोली चलाई न कि जान-बूझ कर। सुना है कि यह मन्नत मांगने एवं थोड़ा बहुत उपचार से सिपाही पुन्नः स्वस्थ हो गए । अब जमवाल साहिब ने मन ही मन सोचा कि आगामी पूर्णिमा की रात को मैं स्वंय पहरा दूंगा।

हुआ यूँ कि आगामी पूर्णिमा को फिर वही प्रकाश एवं किवाड़ खुलने की ध्वनि। जबकि कुलबीर सिंह जम्वाल चुपके से सारा दृष्य देखता रहा। प्रातः जब पुजारी पूजा के लिए मन्दिर आया तो ए.एस. आई. भी उनके संग पूजा के आशय से मन्दिर भीतर चले गए। वही दिन था जब एक पुलिस कर्मी जो देवी-देवताओं को नहीं मानता था – माता का सच्चा भक्त बन गया। फिर क्या था तीन वर्ष की नौकरी दौरान दिन-रात यह पुलिसकर्मी माँ की भक्ति में लीन रहा तथा आध्यात्मिक जीवन आरम्भ हुआ।

ठाकुर साहिब ने इनती भक्ति की कि माता उन के अंग – संग हो गई और उन की वाणी पर बैठ गई। जो कुछ वे कहते शत-प्रतिशत सच होता। परिणाम स्वरूप लोगों ने ए.एस.आई. ठाकुर कुलबीर सिंह जम्वाल को माता का संबोधन प्रदान कर दिया। अर्थात सभी श्रद्धालुओं ने उन्हे माता कहना प्रारम्भ कर दिया। उन पर माता की अपार कृपा रही। सुना है कि एक बार माता ने उन्हें स्वपन में दर्शन प्रदान कर पूछा कि वत्स मोंगो क्या चाहिए। जम्वाल के मुख से एक ही शब्द निकला सर्वत का भला माँ ऐसी शक्ति प्रदान कर कि मैं तेरे पुण्य प्रतीप से दुखी आत्माओं की सेवा कर संकू और उन के छोटे-मोटे कष्टों को दूर कर सकें । माँ ने उस की सादगी एवं परमार्थ भावना को निरख तथाअस्तु कह कर स्वंय लोप हो गई।

तब से निरंतर यह माता का सेवक दुखी लोगों की सेवा में जुटा है चाहे वे अपने घर पर हो या यात्रा में प्रत्येक स्थान पर कष्टयुक्त दुखी लोगों को माँ के नाम का जंतर (यंत्र) एवं जल से स्नान करवा कर सुख पहुंचाते हैं। इन्हें मात्र लोगों की ही चिंता है। अपने घर-बार एवं बाल बच्चों की तनिक भी परवाह नहीं। उन्हें तो माता स्वंय सम्भालेगी ऐसा उन का विश्वास तथा मान्यता है। श्री ठाकुर कुलबीर सिंह जमवाल तप और त्याग की जीती जागती मूर्त है। माता पर इतना विश्वास है कि अपनी पैतृक सम्पति तक माता के नाम कर दी ।

ठाकुर साहिब जनवरी 1976 में मचेल पहुँचे तथा मई 1978 तक वहाँ अपनी ड्यूटी दौरान खूब तपस्या एवं माँ की पूजा करते रहे। इतनी कि सिद्धि प्राप्त कर ली। वे न केवल पूजा-पाठ में व्यस्त रहे अपितु अपनी नौकरी एवं उस के प्रति कर्तव्य को भी भली भान्ति निष्ठा पूर्वक कुशलता से निभाते रहे, जभी तो उनकी पदोनति के साथ-साथ राष्टपति पदक भी प्राप्त हुआ। श्री ठाकुर इन्स्पेक्टर बन कर रिटायर हुए और तब से निरंतर लोगों की सेवार्थ अपने को अर्पित कर दिया है। रविवार के दिन प्रातः से सांय तक चिनोत मन्दिर में दुखियों की सेवा लीन रहते हैं। इतना स्टेम्ना एवं सहन शक्ति सम्भवता माता ही उन्हें प्रदान करती होगी क्योंकि साधारण व्यक्ति इतना सब्र एवं कष्ट नहीं उठा सकता। शायद यही कारण रहा होगा माता के लिए जो उन्हों ने कुलबीर सिंह के हाथों में इतना जादूभरा प्रभाव प्रदान किया कि जिसका भी उपचार करते है अथवा माँ के नाम का यंत्र देता है रोगी कष्टों से उबर आता है। यहाँ संत तुलसी दास का कथन सत्य प्रतीत होता है कि “होते आए भगवान भक्त के बस में भगवान आते हैं उन्हें बुलाने, पुकारने एवं दृढ़ निश्चय वाला व्यक्ति हो तब।

machail-yatra-history-in-hindi-by-Daulat-parihar

इस सम्पूर्ण वितरांत का अंश श्री दौलत राम परिहार द्वारा 2005-06 लिखी पुस्तक “मचेल यात्रा इतिहास” से लिया गया है। माननीय परिहार जी सूचना विभाग के उप निदेशक पद से सेवनिर्वित हुए और पाडर के पहले पोस्ट ग्रेजुएट रहे जिन्होंने सन 1971 में हिंदी में एम्.ए की डिग्री प्राप्त की।

Latest news
Related news

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here